किराये का घर

नमस्कार,

 

मुझे दिल्ली में रहते हुए तीन साल से ऊपर हो गये. इन तीन सालों में जिस एक चीज़ की बहुत कमी महसूस हुई वो है खुद का घर. जनाब इस शहर में तो लोगों की उम्र निकल जाती है एक ढंग का कमरा ढूँढने में. कभी कभी तो खुद को एक खानाबदोश महसूस करने लगता हूँ. अब एक किरायदार का दर्द वही समझ सकता है जो खुद किराय के मकान में रहता हो.  आप माने या ना माने पर इस शहर में कई लोगो के घर केवल हमारे जैसे किरायदारों के किराय से चल रहे हैं.

 

मकानों को किराय में देने से होनी वाली आय का अगर हिसाब लगाए तो आप अचंभित रह जायेंगे. जनाब इतना मुनाफा तो आप एक छोटा मोटा बिज़नस करे तो भी न हो. इसे कहते है के हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा. मेरे ख्याल से तो भारत सरकार को एक अलग मंत्रालय बना देना चाहिए जो इस किराय के मकानों के क्षेत्र को नियंत्रित कर सके. जिस प्रकार से भारत में विदेशी कंपनियां आ रही हैं वो दिन दूर नहीं जब हमारे रहने के लिए मकान कोई अमेरिकी कंपनी बनाएगी और हम किराया अपने क्रेडिट कार्ड से दिया करेंगे.

 

हमारे सदाबहार हीरो देवानंद साहब ने अपनी एक फिल्म में कहा था के ” एक घर बनाऊंगा, तेरे घर के सामने..” मगर जनाब मैं आज दावे के साथ कह सकता हूँ के आज वो यह गाना गाने से पहले सौ बार सोचेंगे. आप ही बताएं एक यहाँ कमरा तो मिलता नहीं घर क्या खाक़ बनायेंगे

 

चलिए यह तो सब मेरे अन्दर की भड़ास थी जो निकलने का मौका ढून्ढ रही थी. अब मैं सो जाता हूँ. कल ब्रोकर साहब को बीस दिन का एडवांस किराया दे के आना है. उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में धमकाते हुए समझाया है के या तो एडवांस दो वरना घर खाली करो. चलिए साहब अब इजाज़त चाहूँगा.

चलते चलते बस ..

 

नयी नयी आँखें हो तो हर मंज़र अच्छा लगता है

कुछ दिन शहर में घुमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है

मिलने -जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं

जिस-से अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है

हमने भी सो कर देखा है नए-पुराने शेहरो में

जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है

– निदा  फाजली

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