मेरा आकाश

नमस्कार

कैसे हैं आप सब. आशा करता हूँ के अच्छे होंगे. आज बैठे बैठे यूँ ही ख्याल आया,  कुछ है जो मैं भूल गया हूँ. दिमाग पर बहुत जोर डाला परन्तु याद न आया. उसी उधेड़बुन में अपने कमरे से निकल के बालकनी में आ गया. शाम हो चुकी थी और सूरज की किरणों की लालिमा बिखरी हुई थी आकाश पर.(यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा के ‘आकाश’ से मेरा तात्पर्य श्री  कपिल सिब्बल वाले आकाश से नहीं है) तभी ऐसा लगा के यही तो है जो मैं ढून्ढ रहा था, मेरे हिस्से का आकाश..मेरा आसमान.

बरसो बीत गए रात में खुले आसमान के नीचे लेटे हुए. बचपन में तो पूरा परिवार रात में  एकसाथ तारे गिना करता था. और अब तो हालात यह हैं के मेरे हिस्से के आकाश में मुश्किल से कोई तारा चमकता है. इन गगनचुम्बी इमारतों ने हमे रहने को घर तो दिए पर हमारा आसमान निगल गयीं. चलिए साहब यह तो हमारी बात थी, हम तो तब भी खुशकिस्मत थे जो बचपन में हमे आसमान नसीब हो गया. मुझे तो डर है के कहीं आने वाली पीढ़ी को उस ‘आकाश’ की फोटो अपने ‘आकाश’ पर न देखनी पड़े.

चलते चलते

                  सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशाँ रहे

                  चले चलो के जहां तक ये आसमान रहे

                  मुझे ज़मीन की गहराईयों ने दाब लिया

                   मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे

  –राहत इन्दोरी

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